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Megaliths of jharkhand (Chokahatu)

चोकाहातु का महापाषाण स्थल, राँची, झारखंड

इस धरती पर मृत्यु ही सबसे बड़ा सत्य है. आप अपना जीवन बड़ी शान से जीते हैं, बड़ी बड़ी उपलब्धियां आपके हिस्से आती है पर एक दिन मृत्यु आकर इन सब पर विराम लगा देती है. और फिर एक वक्त ऐसा भी आता है जब इनकी स्मृतियाँ भी अवशिष्ट नहीं रहती.
आज का सफ़र एक ऐसे विशेष स्थान की ओर जहाँ हज़ारों वर्षों से (ढाई हज़ार वर्ष आनुमानित) मृतकों की याद को चिन्हित करने के लिए विशालकाय चट्टानों को रखते हैं जिनके नीचे दबाकर रखी जाती है उनकी अस्थियाँ. चोकहातु के इस मेगालिथिक साईट में सन 1870 की एक गणना के अनुसार 8000 के आसपास ऐसे महापाषाण मिले थे. मृत्यु को इतने सम्मानजनक रूप से चिन्हित करने की परंपरा यूँ तो पूरी दुनिया में प्रागैतिहासिक युग से ही चली आ रही है पर आज इनमे से बहुत कम ही दिखाई पड़ते हैं पर झारखण्ड में, विशेष रूप से मुंडा जनजाति में, यह आज भी एक जीवित परम्परा है. यूरोप आदि स्थानों में मेगालिथ साइट्स को बड़े सलीके से संवार कर रखा जाता है पर अपने देश में शायद ही ऐसा होता है.
सुबह रांची से बाइक पर निकला, साथ थे विवेक राज. 40 मिनट में बुंडू पहुंच गया. हाई वे छोड़ सोनाहातु के लिए मुड़ा, एक पतली मगर सुंदर सड़क पहाड़ों – खेतों के बीच से होती हुई, उफनती पहाड़ी नदियों के ऊपर बनी पुलों से गुजरती हुई चोकाहातु गाँव की और लेती गई. सोनाहातु ब्लॉक स्थित चोकाहातु एक छोटा सा गाँव है. गाँव में पहुंचकर थोडा आगे बढे तो पाया एक जैन मंदिर के पास कुछ लोगों का जमावड़ा था. इस आदिवासी बहुल क्षेत्र के एक सुदूरवर्ती गाँव में प्राचीन जैन मंदिर (1940 में निर्मित) अगर आश्चार्य जगाये तो इस का ज़िक्र अन्य पोस्ट में करूँगा. बहरहाल आगे बढ़कर उनलोगों से ससंदरी या हडसिल्ली के बारे में पूछा (स्थानीय नामकरण यही है) तो लोगों ने बड़ी आत्मीयता से उत्तर दिया, उनमे से एक, दुखहरण माझी ने साथ चलकर दिखाने का प्रस्ताव भी दिया. इस अंजान जगह में और क्या चाहिए था? संकरी सी पगडंडी पर दुखहरण दा आगे – आगे साईकिल पर और हम पीछे – पीछे बाइक पर.
मेगालिथ या महापाषाण भारत में विभिन्न स्थानों पर मिलते है. इन्हें प्रागैतिहासिक स्मारक के रूप में माना जाता है पर आधुनिक काल में भी महापाषाण की स्थापना होती है. आम तौर पर इनकी स्थापना शवों या अस्थियों को दफनाने, गाँव की चौहद्दियों को चिन्हित करने या खौगोलीय घटनाओं के अनुरूप किया जाता रहा है. इंग्लैंड में स्टोनहेंज, फ्रांस का न्यूग्रान्ज जैसे मेगालिथिक साइट्स दुनिया भर के पर्यटकों और शोधकर्ताओं के आकर्षण का केंद्र है. अपने यहाँ इनपर जानकारियों और शोधों की भारी कमी है. पर्यटन तथा कला-संस्कृति विभाग, लगभग सभी राज्यों में, इस विषय पर संवेदनहीन है. विशिष्ट शोधकर्ता श्री सुभाशीष दास ने लम्बे समय से इस विषय पर गहन अध्ययन किया है और उनके शोध कई पुस्तकों और पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर लोगों का ध्यान इस और आकृष्ट किया है. प्रख्यात पुरातत्वविद तथा झारखण्ड सरकार के कलासंस्कृति विभाग के पुर्व उपनिदेशक, हमारे बेहद आदरणीय, डॉ. हरेन्द्र सिन्हा #harendra_sinha ने हमें प्रेरित किया हम इस स्थान को समझने की कोशिश करें. Rediscover Jharkhand की सह-संस्थापक रत्ना रॉय उत्साह से सारी जानकारियाँ इकठ्ठा कर रही हैं जो इस विषय पर बन रही हमारी डाक्यूमेंट्री में आप सभी के समक्ष होंगी.
थोड़ी दूर चलकर हम रुकते हैं. बरसात की हरितिमा लिए दूर दूर तक फैले एक ओर खेत और मैदान, दूसरी ओर विशाल मैदान में झाड़ियाँ उगी हुई और इनके बीच मेगालिथ, मेगालिथ और मेगालिथ. मानव सभ्यता के प्राचीनतम निदर्शनो में से एक माना जा सकने वाला स्थान बिलकुल ही बिना देखभाल के, आधुनिक समाज और आकाओं के नज़रों से, ख्यालों से ओट लिए शान्ति से बसा है. दुखहरण दा ने बताया जनजातिय कार्य मंत्री ने यहाँ आकर इस स्थान को विकसित करने के लिए एक मोटी रकम की घोषणा की घोषणायें तो घोषणायें ही होती है, सुनने में प्यारी लगती हैं. बहरहाल, सात – आठ एकड़ क्षेत्र में फैले इस महान और पवित्र भूमि में दिल में भरपूर सम्मान लिए हम प्रवेश करते हैं. यह संभवतः भारत का सबसे बड़ा मेगालिथिक साईट है. हम इसके विशेषज्ञ नहीं, तो जो हमें दिखा वो आपसे साझा कर रहे हैं. चार चट्टानों को खूंटों के जैसे गाड़कर उनके ऊपर एक विशाल चट्टान को छतनुमा रखकर महापाषाण या Dolmen की संरचना पूरी होती है इनके नीचे मृतक की अस्थियाँ दबाई हुई होती है. बीच में खड़े होकर देखे तो मेगालिथ्स के समुद्र जैसा प्रतीत होता है. विभिन्न आकार और बनावट की चट्टानें. कुछ तो इतने विशाल कि आश्चर्य होता है लोग उस ज़माने में किस तरह से इन चट्टानों को इस स्थान पर लाते और इस प्रकार चट्टानों के स्तंभों पर लगाते? जो चट्टानें सबसे बड़ी हैं, क्या उन्हें विशेष लोगों के लिए स्थापित किया जाता था? जो भी हो, यह ज़रूर एहसास हो रहा था कि लिखित इतिहास के ना होने पर भी यहाँ के प्राचीन निवासियों ने अपने होने का प्रमाण रख छोड़ा है. इनके लिए हमारे मन में गहरा सम्मान होना चाहिए.एक ओर छोटी शिलाएं भी भरी संख्या में थीं इन्हें अभी के लोग आकर स्थापित करते हैं. जनजातीय लोग ऐसे स्थान को पवित्र मानते हैं, वे अपने पूर्वजों की पूजा करते हैं.
दुखहरण दा अपनी गायों को चराने के लिए हमसे विदा लेकर जा चुके थे. जाते समय हिदायत देते गए, ज्यादा अन्दर मत जाइएगा, बहुत गन्दगी फैलाकर रखा है. हमने भी अनुभव किया, गाँव के लोग जहां – तहां शौच कर इस स्थान में गन्दगी फैलाकर रखे हैं. यह देखकर दुःख हुआ. आप सिर्फ सरकार को दोष देकर बच नहीं सकते, इस स्थान को स्वच्छ और सुन्दर रखने में जागरूक ग्रामीणों की भी भूमिका आवश्यक है.
विकास के नाम पर कांक्रीटीकरण नहीं, ऐसे स्मारकों का मूल रूप में संरक्षण आवश्यक है. आवश्यक है, इनपर और अधिक, प्रामाणिक जानकारियों की.

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